अब आगे सफर ढलान का है!
🖊️ हिदायतउल्लाह खान
हो सकता है कि जोड़-तोड़ कर नरेंद्र मोदी फिर प्रधानमंत्री बन जाएं,लेकिन गुब्बारे की हवा निकल गई है। दौर पूरा हो गया है और अगर अपने दम पर भाजपा की सरकार बन नहीं पा रही है तो वजह में मोदी शामिल हैं।जीत उनकी है तो फिर नाकामी से उनको अलग नहीं किया जा सकता है।सोचिए,अगर पूरी ताकत से जीतते तो क्या फ्रेम में किसी को आने देते ? पहले भी किसी को नहीं आने दिया है,अकेले ही नजर आते रहे हैं।अब नाकामी सामूहिक कैसे हो सकती है। असल में नतीजे के पहले ही मोदी ने खुद को विजेता मान लिया था, इसलिए जवाब भी उन्हें ही देना है। पूरा चुनाव उनके नाम पर लड़ा गया। चार सौ पार का नारा उनका ही दिया हुआ था।सिर्फ एक ही तस्वीर थी, जो पूरे देश में दौड़ रही थी,किसी दूसरे को करीब नहीं होने दिया, लेकिन वो सब नहीं हुआ है, जिसका शोर था या माहौल बना दिया गया था। सबसे आगे रहने के बाद भी मोदी पीछे आए हैं, क्योंकि उन्होंने खुद को इतना आगे बता दिया था कि जहां पहुंचे हैं,वो उनकी बताई जगह से बहुत पीछे है। मोदी ने अपने नाम का इतना शोर कर रखा था कि मुकाबला ही खुद से हो गया था। विरोधी तो गिनती में ही नहीं थे और देखना था कि जहां तक जाने की बात कर रहे हैं, क्या पहुंच पाएंगे,जादू बरकरार रहेगा और नतीजे ने बता दिया कि कमी आ गई है, अब पहले जैसा कुछ नहीं है। वो अपने आप से हार गए हैं।मैं..मैं से शुरू हुआ चुनाव मोदी से आगे कभी बढ़ा ही नहीं, लेकिन अब खेल उलझ गया है तो एनडीए याद आया है। वरना मोदी सरकार,मोदी मैजिक और मोदी गारंटी के अलावा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। कल मोदी जब दफ्तर आए तो उनकी जबान पर एनडीए था और दस बरस में जितनी बार उन्होंने एनडीए का नाम नहीं लिया,उससे ज्यादा कल जिक्र कर गए।हालांकि दस बरस में कितनी बार एनडीए की मीटिंग हुई,कितनी बार साथ वाली पार्टियों को बुलाया गया,कौन कन्वीनर है,इसका जवाब तो जेपी नड्डा के पास भी नहीं है।भाजपा अध्यक्ष हैं और मोदी के अलावा उन्होंने कभी कोई बात नहीं की है,लेकिन कल उनकी जबान से भी एनडीए हट नहीं रहा था।वैसे बदलाव दिखने लगा है।कल अकेले मोदी नहीं थे,आजू-बाजू अमित शाह और नड्डा तो थे ही,राजनाथ सिंह को बराबर की जगह मिली, जबकि इससे पहले कब उन्हें जीत के जश्न में करीब खड़ा किया गया था ? यही लोकतंत्र है और हिंदुस्तानी अवाम है,जिसने चंद घंटों में महामानव को मानव बना दिया और आसमान के सैर-सपाटे से जमीन पर ला दिया है।सिर्फ मैं की हार नहीं हुई है,नफरत को भी मुंह छुपाना पड़ रहा है।अयोध्या के नाम पर देश जीतने का मंसूबा था,लेकिन अयोध्या ही हार गए हैं।एक इलाके की हार नहीं है,बल्कि उस विचार की शिकस्त है,जो मजहब के नाम पर सियासी हुकूमत करना चाहता है।मोदी एंड कंपनी ने मान लिया था कि राम मंदिर को लेकर जिस तरह का शोर हुआ है,उसके बाद कोई हरा नहीं सकता है और उत्तर प्रदेश में तो सुपड़ा साफ कर देंगे।अयोध्या हार जाएंगे,ऐसा तो सोच भी नहीं सकते थे,लेकिन राम की नगरी ने बता दिया कि भाजपाई राम-राम में उनकी दिलचस्पी नहीं है। हिंदू-मुसलमान वाली सियासत भी ठिकाने लग गई है और अब अगर बरकरार रहना है तो कुछ नया करना पड़ेगा। पहली बार है,जब मोदी को सियासी बैसाखियों की जरूरत पड़ी है, वरना गुजरात से लेकर दिल्ली तक अपने दम पर ही खड़े रहे हैं।सियासी जिद या यूं कह लीजिए सियासी ब्लैकमेलिंग से वाकिफ नहीं है और अब उसका ही उन्हें सामना करना है।मामला साथी पार्टियों का ही नहीं है, भाजपा में कई नेता हैं, जो इंतजार में थे,लेकिन बात बन नहीं पा रही थी।अब कसर रह गई है और कोई मौका छोड़ने वाला नहीं है। फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है, जिस पर मोदी हावी हो गए थे। जेपी नड्डा ने तो कह ही दिया था कि संघ की जरूरत नहीं है,पर उसके मोहताज हो गए हैं और वहां से जिसका नाम आएगा,वही प्रधानमंत्री बनेगा। जाहिर है, पहली लड़ाई भाजपा में होगी और हो सकता है,साथी पार्टियों को भाजपाई नेता ही समझा दें कि कप्तान बदलने पर साथ देना है,क्योंकि सियासत में कुछ भी हो सकता है।मोदी ने जिन्हें खत्म करना चाहा था,जिस पार्टी से देश को मुक्ति दिलाने की बात कही थी,वो सब भी हो नहीं पाया है। हालांकि अभी भी मोदी गारंटी का जिक्र है और बड़े फैसलों का दावा किया जा रहा है,लेकिन पहले की तरह सियासी हालात बीच नहीं है।मोदी अकेले कुछ नहीं कर सकते हैं। उन्हें नीतीश कुमार से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक जाना पड़ेगा। समान सिविल कानून से लेकर एक देश-एक चुनाव सहित जितनी बातें हुई हैं,सब मुश्किल में तो आ ही गई हैं।वैसे अभी खेल शुरू हुआ है,कई उतार-चढ़ाव आना है,लेकिन मोदी जरूर उतार पर आ गए हैं और आगे का सफर ढलान का है!
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